तन्हा सा भीड में,
खडा हूँ
एक निर्विकार सी
मूरत को निहारता
सौम्य
शांत
जाने क्या है
मन में उसके
क्यूं नहीं
देखती मेरी और
क्यों
छोंड दिया
मुझे
उसने
तन्हाईयों के
आगोश में
क्यों करता हूँ
उसको प्यार
प्यार बस,
उतना ही
जितना
सब किया करते हैं
पर मैं सोचता है
मेरा प्यार ही सच्चा है
मन कि निश्छलता से
परिपूर्ण है
पर क्या
वो मूरत सोचती है
ऎसा कुछ
शायद हाँ
शायद ना
जवाब तो है
पर है
समय के पास
सच है
समय ही सच है
सत्य है
अटल है
Monday, October 1, 2007
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1 comment:
नीरज जी प्यार का दूसरा नाम समर्पण और त्याग ही है
कविता सुन्दर है लिखते रहिये...
सुनीता(शानू)
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