हे गाँधी !
जिया तूने सत्य को,
सत्याग्रह को, विश्वास को,
अहिंसा को,
पहना सादगी को,
कर्त्तव्य को, आत्म बोध
और विश्वबन्धुत्व को,
नीलकंठ बन पिया है
अपमान को, अपशब्द को,
तूने नही सहन किया है
जग में छाये अनाचार के
अधिंयारे को
निकल पडा तू उस राह पर
न स्वार्थ, न मान किया
जनधन का सदा सम्मान किया
आदर्श राम के रख प्राण में
जन-जन का उत्कर्ष किया
सत्ता का मोह नहीं मन में
परमार्थ का प्रकाश किया
कर दीन हीन में विश्वास
अहर्निश सेवाव्रत लिया
आज तूझे भूला नहीं यह देश
किन्तु, आदर्श तुम्हारे
सब भूल गया
जिसका तुम्हें मोह नहीं था
न जरा भी चाह थी
रोब, रूप और रूपया
सत्ता का सरताज बन गया
फ़िर क्यों नहीं समझता
ये आदमी
जो जीता है
तेरे नाम की छाँव में
उस माँ के
आँचल की सी छाँव
जो मिटा देती है
सब कष्ट
लुटा देती है
अपना सर्वस्व
अपने लाल पर
सोचा था तूने
राम राज्य लाने का
अपने सपनों का
भारत बनाने का
पर
पर शायद
राम तो तुम्हारे
साथ ही
चले गये
जब निकले थे
अंतिम शब्द रूप में
तुम्हारे मुख से
हे राम !
Monday, October 1, 2007
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5 comments:
नीरजजी
जहाँ तक मैं जानता हूँ आपने पहली बार कविता लिखी है, और पहली ही बार में इतनी सुन्दर कविता!! आपने शब्दों का चयन बहुत खूबसूरती से किय़ा है।
यह पंक्तियाँ बहुत पसन्द आई।
पर शायद
राम तो तुम्हारे
साथ ही
चले गये
जब निकले थे
अंतिम शब्द रूप में
तुम्हारे मुख से
हे राम !
कविता अच्छी लगी।
आपका हिन्दी चिट्ठाकारी में स्वागत है! कविता लिखने के सात-साथ अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र में कुछ गद्य पर भी लिखा कीजियेगा।
nice poems
सुन्दर ! बापू को याद करने का बस दो ही दिन नियत रह गये लगते हैं ।
भाव-भीनी कविता से विशेष श्रद्धाञ्जलि दी है आपने। रामराज्य को आएगा ही फिर से, पर ठोस प्रयासों की जरूरत है।
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