सुप्त हो चुकी हैं संवेदनाएं
उनकी क्यूँकर
छा गई है बदली काली
विश्वास पर क्यूँकर
है मरघट सी विरानी
रिश्तों में क्यूँकर
अटके शब्द उल्लास के
हिय में क्यूँकर
सुवास उमंगो की
नहीं रही क्यूँकर
ठहरा है सूनापन
दोस्ती में क्यूँकर
मौन है सखा अब
जाने क्यूँकर
सुप्त हो चुकी है
संवेदनाएं उनकी क्यूँकर
Friday, October 12, 2007
Monday, October 1, 2007
तन्हाईयों के आगोश में
तन्हा सा भीड में,
खडा हूँ
एक निर्विकार सी
मूरत को निहारता
सौम्य
शांत
जाने क्या है
मन में उसके
क्यूं नहीं
देखती मेरी और
क्यों
छोंड दिया
मुझे
उसने
तन्हाईयों के
आगोश में
क्यों करता हूँ
उसको प्यार
प्यार बस,
उतना ही
जितना
सब किया करते हैं
पर मैं सोचता है
मेरा प्यार ही सच्चा है
मन कि निश्छलता से
परिपूर्ण है
पर क्या
वो मूरत सोचती है
ऎसा कुछ
शायद हाँ
शायद ना
जवाब तो है
पर है
समय के पास
सच है
समय ही सच है
सत्य है
अटल है
खडा हूँ
एक निर्विकार सी
मूरत को निहारता
सौम्य
शांत
जाने क्या है
मन में उसके
क्यूं नहीं
देखती मेरी और
क्यों
छोंड दिया
मुझे
उसने
तन्हाईयों के
आगोश में
क्यों करता हूँ
उसको प्यार
प्यार बस,
उतना ही
जितना
सब किया करते हैं
पर मैं सोचता है
मेरा प्यार ही सच्चा है
मन कि निश्छलता से
परिपूर्ण है
पर क्या
वो मूरत सोचती है
ऎसा कुछ
शायद हाँ
शायद ना
जवाब तो है
पर है
समय के पास
सच है
समय ही सच है
सत्य है
अटल है
हे गाँधी !
हे गाँधी !
जिया तूने सत्य को,
सत्याग्रह को, विश्वास को,
अहिंसा को,
पहना सादगी को,
कर्त्तव्य को, आत्म बोध
और विश्वबन्धुत्व को,
नीलकंठ बन पिया है
अपमान को, अपशब्द को,
तूने नही सहन किया है
जग में छाये अनाचार के
अधिंयारे को
निकल पडा तू उस राह पर
न स्वार्थ, न मान किया
जनधन का सदा सम्मान किया
आदर्श राम के रख प्राण में
जन-जन का उत्कर्ष किया
सत्ता का मोह नहीं मन में
परमार्थ का प्रकाश किया
कर दीन हीन में विश्वास
अहर्निश सेवाव्रत लिया
आज तूझे भूला नहीं यह देश
किन्तु, आदर्श तुम्हारे
सब भूल गया
जिसका तुम्हें मोह नहीं था
न जरा भी चाह थी
रोब, रूप और रूपया
सत्ता का सरताज बन गया
फ़िर क्यों नहीं समझता
ये आदमी
जो जीता है
तेरे नाम की छाँव में
उस माँ के
आँचल की सी छाँव
जो मिटा देती है
सब कष्ट
लुटा देती है
अपना सर्वस्व
अपने लाल पर
सोचा था तूने
राम राज्य लाने का
अपने सपनों का
भारत बनाने का
पर
पर शायद
राम तो तुम्हारे
साथ ही
चले गये
जब निकले थे
अंतिम शब्द रूप में
तुम्हारे मुख से
हे राम !
जिया तूने सत्य को,
सत्याग्रह को, विश्वास को,
अहिंसा को,
पहना सादगी को,
कर्त्तव्य को, आत्म बोध
और विश्वबन्धुत्व को,
नीलकंठ बन पिया है
अपमान को, अपशब्द को,
तूने नही सहन किया है
जग में छाये अनाचार के
अधिंयारे को
निकल पडा तू उस राह पर
न स्वार्थ, न मान किया
जनधन का सदा सम्मान किया
आदर्श राम के रख प्राण में
जन-जन का उत्कर्ष किया
सत्ता का मोह नहीं मन में
परमार्थ का प्रकाश किया
कर दीन हीन में विश्वास
अहर्निश सेवाव्रत लिया
आज तूझे भूला नहीं यह देश
किन्तु, आदर्श तुम्हारे
सब भूल गया
जिसका तुम्हें मोह नहीं था
न जरा भी चाह थी
रोब, रूप और रूपया
सत्ता का सरताज बन गया
फ़िर क्यों नहीं समझता
ये आदमी
जो जीता है
तेरे नाम की छाँव में
उस माँ के
आँचल की सी छाँव
जो मिटा देती है
सब कष्ट
लुटा देती है
अपना सर्वस्व
अपने लाल पर
सोचा था तूने
राम राज्य लाने का
अपने सपनों का
भारत बनाने का
पर
पर शायद
राम तो तुम्हारे
साथ ही
चले गये
जब निकले थे
अंतिम शब्द रूप में
तुम्हारे मुख से
हे राम !
Subscribe to:
Posts (Atom)