Friday, October 12, 2007

सुप्‍त हो चुकी हैं संवेदनाएं

सुप्‍त हो चुकी हैं संवेदनाएं
उनकी क्‍यूँकर

छा गई है बदली काली
विश्‍वास पर क्‍यूँकर
है मरघट सी विरानी
रिश्‍तों में क्‍यूँकर
अटके शब्‍द उल्‍लास के
हिय में क्‍यूँकर

सुवास उमंगो की
नहीं रही क्‍यूँकर
ठहरा है सूनापन
दोस्‍ती में क्‍यूँकर
मौन है सखा अब
जाने क्‍यूँकर
सुप्‍त हो चुकी है
संवेदनाएं उनकी क्‍यूँकर

Monday, October 1, 2007

तन्हाईयों के आगोश में

तन्हा सा भीड में,

खडा हूँ

एक निर्विकार सी

मूरत को निहारता

सौम्य

शांत

जाने क्या है

मन में उसके

क्यूं नहीं

देखती मेरी और

क्यों

छोंड दिया

मुझे

उसने

तन्हाईयों के

आगोश में

क्यों करता हूँ

उसको प्यार

प्यार बस,

उतना ही

जितना

सब किया करते हैं

पर मैं सोचता है

मेरा प्यार ही सच्चा है

मन कि निश्छलता से

परिपूर्ण है

पर क्या

वो मूरत सोचती है

ऎसा कुछ

शायद हाँ

शायद ना

जवाब तो है

पर है

समय के पास

सच है

समय ही सच है

सत्य है

अटल है

हे गाँधी !

हे गाँधी !
जिया तूने सत्य को,
सत्याग्रह को, विश्वास को,
अहिंसा को,
पहना सादगी को,
कर्त्तव्य को, आत्म बोध
और विश्वबन्धुत्व को,
नीलकंठ बन पिया है
अपमान को, अपशब्द को,
तूने नही सहन किया है
जग में छाये अनाचार के
अधिंयारे को
निकल पडा तू उस राह पर
न स्वार्थ, न मान किया
जनधन का सदा सम्मान किया
आदर्श राम के रख प्राण में
जन-जन का उत्कर्ष किया
सत्ता का मोह नहीं मन में
परमार्थ का प्रकाश किया
कर दीन हीन में विश्वास
अहर्निश सेवाव्रत लिया
आज तूझे भूला नहीं यह देश
किन्तु, आदर्श तुम्हारे
सब भूल गया
जिसका तुम्हें मोह नहीं था
न जरा भी चाह थी
रोब, रूप और रूपया
सत्ता का सरताज बन गया
फ़िर क्यों नहीं समझता
ये आदमी
जो जीता है
तेरे नाम की छाँव में
उस माँ के
आँचल की सी छाँव
जो मिटा देती है
सब कष्ट
लुटा देती है
अपना सर्वस्व
अपने लाल पर
सोचा था तूने
राम राज्य लाने का
अपने सपनों का
भारत बनाने का
पर
पर शायद
राम तो तुम्हारे
साथ ही
चले गये
जब निकले थे
अंतिम शब्द रूप में
तुम्हारे मुख से
हे राम !